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कविता

प्रेम उमंगित और तरंगित

कृष्ण कुमार


प्रेम उमंगित और तरंगित,
एक शलभ मँडराता है।

एक अर्चना एक तर्जना
गुंजन में है एक वंदना।
गुन-गुन-गुन कर गाता जाता
करता बस रहता रचना।।
एक राग में एक तान से,
ही केवल वह गाता है।

भूल गया है इस दुनिया में
ऊपर नीचे आता है।
पंखों पर वह ताल बजाता
नर्तन करता जाता है।।
एक ध्येय है एक पंथ है,
राही बढ़ता जाता है।

इब्ने-आदम शलभ और मृग
एक वर्ग में आता है।
मृग-तृष्णा प्यासी रह जाती
और शलभ मर जाता है।।
प्रेम प्रतीक मगर यह जग में,
अजर-अमर कहलाता है।


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